न जाने कौन माने कि तिफ़्ली मासूम थी,
हर लु'ब में भी तक़सीम-ए-सह्न मरसूम थी।
जब तक शीशा-ए-चूड़ी लेकर लौटा,
उसके कफ़ में ज़र का ज़ेवर मख़सूम था।
जो भी मिला, आपस में तक़सीम-ए-अज़ल,
हम एक थे और एक ही मख़सूस था।
अक्स न था, बस रंगों की रवानी थी,
उसके हुस्न से हर आईना महज़ून था।
रो-धोकर सो जाता, मगर दर्द तेरा,
हर क़तरा गोया सावन का अफ़साना था।
तेरी फ़िराक़ में और यादें तग़य्युर होंगी,
शायद ऐसा तसव्वुर मेरा तिफ़्लीआना था।