"तिफ़्ली (बचपन ) का अफ़साना"

-विवेक

न जाने कौन माने कि तिफ़्ली मासूम थी,

हर लु'ब में भी तक़सीम-ए-सह्न मरसूम थी।

जब तक शीशा-ए-चूड़ी लेकर लौटा,

उसके कफ़ में ज़र का ज़ेवर मख़सूम था।

जो भी मिला, आपस में तक़सीम-ए-अज़ल,

हम एक थे और एक ही मख़सूस था।

अक्स न था, बस रंगों की रवानी थी,

उसके हुस्न से हर आईना महज़ून था।

रो-धोकर सो जाता, मगर दर्द तेरा,

हर क़तरा गोया सावन का अफ़साना था।

तेरी फ़िराक़ में और यादें तग़य्युर होंगी,

शायद ऐसा तसव्वुर मेरा तिफ़्लीआना था।

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