मैं याद दिलाने आया हूँ,
कुछ छूट गई अनकही बात याद दिलाने आया हूँ,
चाव से खा रहे भात से माटी याद दिलाने आया हूँ,
पसीने से सींची हुई वो कण - कण याद दिलाने आया हूँ,
भूल गए हो न - वो संघर्ष, वो क्षण क्षण याद दिलाने आया हूँ ।
सफलताओं की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते जमीं भूल गए हो,
तरक्की की आसमां देखते देखते , खुद की छाँव भूल गए हो,
चलो ! तुम्हें याद दिलाऊँ , अपनी स्याही से ,
वो भव्य इतिहास , वो नैतिक संस्कार , जो तुम कब के भूल गए हो ।
आओ तुम्हें याद दिलाऊँ,
हम मनु वंशज, संस्कृति के प्रहरी हैं,
सभ्यता की वो धारा हैं, जो युगों से अविचल खड़ी हैं।
हम सिंधु की लहरों में लिखी गाथा,
आर्य माटी की संजीवनी छाया।
हम जड़ें हैं पुरातन युगों की,
सनातन सत्य की अग्नि-धुनी की।
हम सतलुज की शांत सरिता, रवि की प्रभा,
प्राचीन काशी की मोक्षदायिनी गाथा।
हम थार की तपती रेत,
गंगा की शीतल, पावन खेत ।
हम हिंद महासागर की गहराई,
हिमालय की अडिग ऊँचाई।
हम तर्क, ज्ञान की भूमि के वासी,
योग, ध्यान की साधना के अभिलाषी।
हम तक्षशिला, नालंदा की लौ,
काशी, बोधगया की अमर गोष्ठी में गूँजते शब्द-संयोग।
हम महाकाव्य, गीता का ज्ञान,
शून्य की खोज और आयुर्वेद का मान।
हम दर्शन की असीम धारा,
हम विवेकानंद की ज्वाला।
हम वास्तु के वैभव की पहचान,
सूर्य मंदिर की शिलाओं में बसी सच्ची शान।
हम गुरु के चरणों का दीपक,
हम शिष्य के श्रद्धा भरे संकेतक।
हम पनघट की रुनझुन बंसी,
हम वटवृक्ष की शीतल छाँव जैसी।
तो सुनो ऐ नवयुवा,
माटी की इस पहचान को ना मिटाओ,
संस्कृति की इस जोत को ना भुलाओ।
ये विरासत किताबों की नहीं,
ये जीवन की असली पूँजी है कहीं।
आओ तुम्हें याद दिलाऊँ,
तुम भारत की मिट्टी हो,
सनातन दीप की बाती हो।
गर्व जितना इस धरा पर है,
कर्तव्य उतना तुम्हारा है।
"वक़्त के साथ जो अपनी जड़ें भुला बैठे हैं,
उनकी पहचान बस इक क़िस्सा बन कर रह जाएगी।
तहज़ीब, अदब, विरासत — ये दौलत है हमारी,
जो इसे न सहेज सका, उसकी रूह भी तन्हा रह जाएगी।
शाख़ें तभी तक हरी हैं जब तक जड़ों से वफ़ा रहे,
वरना हवाओं में उड़ती ये दुनिया, बस ख़ाक रह जाएगी।