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आज की कविता

सह्राए-ग़ुर्बत का नग़मा

कहता है वादी-ए-इश्क़ में, फ़ना हो जाना वाजिब,

इस ख़ुशगुमाँ को आप से, रु-ब-रु कराना लाज़िम।

जो झपकाए न निगाह कभी, महफ़िल-ए-शौक़ में,

ऐसे नक़्शबीन से, दामन बचाना मुनासिब।

ज़ुल्फ़ों की तीरगी दिखाऊँ, कि अज़रुख़ रुख़सार,

इतना तो अज्ल को भी, दरयाफ़्त करना लाज़िम।

गर कोई सरमस्त मिले, करूँ उससे इस्तिफ़सार,

सह्राए-ग़ुर्बत में आख़िर, कितनी बुलंद नवा लाज़िम।

अरमाँ तो हैं मगर नहीं, हिम्मत किसी इस्म की,

यानी कि अब वक़्त आ गया, इस्तिग़फ़ार का लाज़िम।

क्यूँ बारहा दश्त की सैर, कराते हैं आप मुझको,

कोई ख़ामुश सराए-शहर, अब तो दरकार लाज़िम।